हे ज़ुहरा।



आकाश गंगा में हँस रही थी तुम 
बारिश के साये में 
जानता नहीं हूँ मैं क्यों घबड़ाये मेरा मन 
इसलिए " मन्दारा "

विचारों का महल में कामदेव सपना 
अनंत की तरह 
रतिदेवी ज़ुहरा 
एक शब्द बोलिए मुझे 
उसके हाथ को छूते रहे 

गगन नदी में हुई शादी के 
सोने की अंगूठी की तरह 
रतिदेवी ज़ुहरा 
छुप के आइये उँगली पर मेरी 

ललाट झील में 
सिंदूर क्षेत्र में 
छोटी सी बिंदू के रूप में 
रति देवी ज़ुहरा 
छुप के रहिये माथे जेवर में उसकी 

*दुल्कान्ति समरसिंह।* 



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